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खतरा होता है...


दो असंगत लोग
एक लाचार कंधा
एक बेपरवाह सर.

दो मिथ्या तर्क
एक स्त्री की श्रेष्ठता
एक पुरुष की पूर्णता.

दो वर्जनाएं
एक विधवा की हंसी
एक प्रेमी का विलाप.

दो उपलब्धियां
एक बिना नींद का बिस्तर
एक बिना प्रेम का सिंदूर.

दो अनुपस्थितियां
एक कविता में भाव
एक मर्सिया का प्रभाव.

दो सलीके
एक भूखे पेट की नैतिकता
एक द्रोही का प्रश्न.

दो झूठे सच
एक बची हुई स्त्रियां
एक सदानीरा नदियां.

दो अबूझी पहेलियां
एक पुरुष का मौन
एक समय के पार कौन.

दो आलिंगन
एक जिसमें असीम प्रेम हो
दूसरा जिसमें प्रेम ही न हो.

दो विरह
एक पतंग से डोर
एक रात अमावस का भोर.

दो संदेशे
एक प्रेयसी का
एक प्रेयसी के लिए.

...और ब्रह्मांड के दो रहस्य
पहली पौरुषहीन स्त्री
दूसरा स्त्रीत्व विहीन पुरुष.

प्रेम तो प्रेम है


उस रोज़
जब पतझड़ धुल चुका होगा
अपनी टहनियों को,
पक्षी शीत के प्रकोप से
बंद कर चुके होंगे अपनी रागिनी,
देव कर चुके होंगे पृथ्वी का परिक्रमण,
रवि इतना अलसा चुका होगा
कि सोंख ले देह का विटामिन,
सड़कों पर चल रहा होगा प्रेतों का नृत्य,
लोग दुबके होंगे मोम के खोल में
सरकंडे की आँच पर,
इच्छा उतार कर रख दी गई होगी
घर के आले में,
मोह सूने आंगन को बुहार रहा होगा,
दया क़ैद हुई होगी आँखों के काले कटोरे में,
और प्रेम...हमारे पहरे पर होगा;
उस रोज़ तुम अपनी नैसर्गिक चुप्पी तोड़ोगे
और खिला रहे होगे मिलन की कोपलें
अपने मन के सूने जालों में
...उस रोज़ भी मैं भागी चली आऊँगी
तुम्हारी एक आहट पर
बिना किसी सकुचाहट के,
टाँग कर आऊँगी अपनी हया
बूढ़े पीपल की किसी कोटर में
उसी रोज़...

लड़की की इच्छा



मैंने बो दी है अपनी इच्छा
'इस समाज में न जीने की'
किसी गहरी मिट्टी के नीचे
क्योंकि ये समाज सुधरने से रहा
और मैं ख़ुद को मार नहीं सकती.
कैसे जियूँ यहाँ तिल-तिल मरकर
हंसने-बोलने पर पाबंदी लगी
पढ़ने जाने पर लगी
बाहर निकलने पर लगी.
जब भी समझाती हूं
बाबा अब सब सही हो गया
फ़िर कोई नई बात हो जाती है;
समझ नहीं आता ये रातें भी
क्यों होती हैं एक लड़की के हिस्से
कभी सूरज वाली रात
कभी भावनाओं वाली
तो कभी दर्द वाली;
यकीन है मुझे
एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा
तब लौट कर आऊँगी पूरी मैं
मेरी रोपी हुई इच्छा का
पेड़ मजबूत हो चुका होगा तब तक
और सबने उतार लिया होगा उससे
अपनी-अपनी इच्छा का फ़ूल
...तब तक, मैं भटकती रहूँगी
इच्छा रहित आत्मा में
एक ज़िस्म बनकर
हैवानों को बोटी चाहिए
बेटी नहीं.

मैं दोषी हूँ


मैं दोषी हूँ
उन तमाम गुनाहों की
जो मैंने प्रेम करते हुए किए.
मैं दोषी हूँ
उस प्रेम की भी
जो तुमने महसूस किया.
मैं दोषी हूँ
उन तमाम रातों की
जो तुम्हारे इंतज़ार में गुजारीं.
मैं दोषी हूँ
उस पल की
जब मैंने तुम्हें अच्छा कहा.
मैं दोषी हूँ
उस कल की
जिसमें तुम्हें साथ चाहा था.
मैं दोषी हूँ
उन शब्दों को पढ़ने की
जो तुमने लिखने चाहे.
मैं दोषी हूँ
कि तुम्हारा दर्द
तुमसे बड़ा मुझे दिखा.
मैं दोषी हूँ
सबसे ज़्यादा इस बात की
कि अपना ही दोष दिखा नहीं.

PC: Pinterest

ओ पुरुष!



ओ पुरुष,
तुम्हें भी भीतर घुटता होगा कहीं
जब तुम अपने होठों पर रख लेते हो
मौन सलाखें;
तुम्हें भी तो प्यारी होगी स्त्री उतनी ही
जितना प्रेम तुम उससे पाते हो
और जब वही स्त्री तुम्हें समझती नहीं होगी
तो मुरझा जाते होगे तुम भी दर्द से
जैसे दूब मुरझा जाती है चटख धूप से,
तुम्हारा मन भी व्याकुल होता होगा
संचित नेह लुटाने को,
तुम भी तो देना चाहते होगे वो स्पर्श
जो राम ने दिया था अहिल्या को,
तुम भी टटोलते होगे न अपनी देह को
और महसूसते होगे वो गंध
जो तुम्हारी स्त्री तुमसे अंतिम बार
लिपटते हुए छोड़ गई थी;

ओ पुरुष बोलो न!
तुम भी तो बनाना चाहते होगे संतुलन
तुम्हारे मन में भी चलता होगा एक कल्पित माध्य
जो आसान करना चाहता होगा असंतुलित समीकरण
तुम भी लिखते-मिटाते होगे बही खाते का हिसाब
उस अबूझी स्त्री की तरह
जो मन में बहुत कुछ रखकर भी
बंद कर लेती है आँखें सच छलकने के डर से;

ओ पुरुष!
थक जाते होगे न तुम कभी-कभी
पुरुष बने हुए,
तुम भी तो कभी स्त्री बनने की इच्छा रखते होगे
जब आह्लादित करती होगी स्त्री की कोमलता;

तुम्हारी उंगलियों के पोरों पर
ये जो अम्लता ठहरी है
इसकी हर बून्द को सांद्र कर दो,
तुम्हारी जिह्वा को सुशोभित कठोर स्वरों को
कोमल व्यंजनों में बदल दो,
ओ पुरुष! तुम्हें स्त्री सा होना भी ग्राह्य है
ये कहकर पुरुषत्व को आकाश भर कर लो.

प्रेम है प्रेम सा


बहुत गर्माहट देती हैं
शीत ऋतु में तुम्हारी चुप्पियां
जैसे किसी नवजात को माँ ने
अपनी छाती में भींच रखा हो.
एक अरसे के बाद तुम्हारा आना
ऐसे भरता है
हमारी सर्द रातों में गर्मी
जैसे किसी दुधमुँहे के तलवों पर
अभी-अभी की गई हो
गुनगुने सरसों के तेल की मालिश.
छज्जे पर तुम्हारी राह तकते हुए
पहुँचने से पहले ही
किवाड़ खोलने की छटपटाहट
याद दिला ही जाती है
लड़खड़ाते कदमों से बच्चे के आते ही
माँ के अंक में भर लेने की कला.
प्रेम में पगा होता है मेरा हर पल
जब तुम्हें सोचूँ प्रेम उमड़ता है
जब तुम्हें देखूँ प्रेम मचलता है
और जब तुम्हें प्रेम करूँ
प्रेम को भी प्रेम पर गुमान हो उठता है.

Picture Credit: Pexel

पहली बार

जब पहली बार निकलो यात्रा पर
तो कुछ भी न रखना साथ
चाकू, घड़ी, छतरी, टिश्यू पेपर, टॉयलेट सोप...
आदि कुछ भी नहीं
कहीं अगर ले लिया
इन सामानों से भरा झोला
तो कंधे थक जाएंगे
और तुम्हें नहीं मिलेगा
सफ़र का भरपूर मज़ा.
मैं भी तैयारी में हूँ
एक अनन्त यात्रा की
जो बिल्कुल पहली बार होगी
और कुछ नहीं होगा साथ
सिवाय तन पर एक सफ़ेद लिबास के...

कविता का अस्तित्व

PC: Pexel


दिन पर दिन वृहद होती मेरी इच्छाएं
एक दिन मेरी कविताओं का कौमार्य भंग कर देंगी,
उभरते हुए शब्दों के निशीथ महासागर में
गहराई का एक मुहावरा भर बनकर रह जाएंगी
सिर टिकाए हुए भाषा और देह के व्याकरण में
विलुप्त हो रही स्मृतियों में तलाशी जाएंगी
बावजूद भी इसके क्या संभव होगा
कविताओं के जरिए क्रांति लाना
या फ़िर बन जाएँगी वो अघाई हुई औरतें
जिन्हें मतलब औरत जाति से नहीं होता
बल्कि बराबरी का दिवस मनाने मात्र से होता है.
अस्वीकृत होने की कुंठा मन में छुपाए
निकल पड़ेंगी एक अनवरत यात्रा के लिए
जहाँ से लौटकर कोई संदेशा नहीं आता
मौत भी इन्हें देखकर करवट बदल लेती है
और सो जाती है एक बेमौत नींद...
या फ़िर बन जाएंगी आग
और सिमट जाएंगी एक दिन चूल्हे के कोने में,
घरों के ईशान कोण में
जहाँ आज भी धूप की सुगंध नथुने तर करती है;
कविताओं का अस्तित्व तलाशने की इच्छा
रचती रहेगी नई कविताएँ
और उगाती रहेगी
विलुप्ति के जड़ पर उग रहे अस्तित्व के कैक्टस.

जीवित शिलालेख

उस रोज़ मर गयी थी माँ
लोग सांत्वना दिए जा रहे थे,
'सब ठीक हो जाएगा
मत परेशान कर ख़ुद को...'
कुछ भी ठीक नहीं हुआ
क्योंकि कुछ ठीक होने वाला नहीं था
वो देह भर गरीबी अर्जित कर
कूच जो कर गयी थी.
ऐसे ही जब मरे थे बापू
कुछ भी नहीं था तब
सांत्वना भी नहीं!
काकी, ताई, दाऊ, दद्दा...
सब इसी तरह जाते रहे.
ग़रीब के हिस्से आता ही क्या है
अलावा जिल्लत के?
अब मुझे मौत से डर नहीं लगता,
रात के अँधेरों से डर नहीं लगता,
दर्द की नग्नता से डर नहीं लगता,
मेरे भीतर का मौन कचोटता नहीं है मुझे
मैं वो जीवित शिलालेख बन चुकी हूँ
जिस पर बादल बरसकर भी नहीं बरसते,
हवा का ओज कौमार्य भर देता है
निष्प्राण देह में,
काल भृमण करता है मुझ पर
मेरी उम्र बढ़ाने को...

नेह का दस्तख़त

सब कुछ भूलने से पहले
मन किया
कि सब कुछ याद कर लूँ
बहुत ज़्यादा
एक बार फ़िर
शायद कोई बात मिल जाए ऐसी
कि मन कसैला हो जाए तुमसे
...सब कुछ ढूंढ लिया
फ़िर मिला,
'धत्त...पागल होते हैं वो
जो पावन मन के प्रेम की
सुंदरता को खोते हैं
मुझे तितली की सुंदरता चाहिए
तो किताबों में क़ैद करना कैसा
...उड़ने दूँ उन्मुक्त होकर
उसे ख़ुद के साथ'
मैं, तितली
और नेह का वो धागा
जो एक अदद हस्ताक्षर है
मन के उजलेपन का!

एक पिता की चुपचाप मौत

मूक हो जाते हैं उस पिता के शब्द
और पाषाण हो जाती है देह
जो अभी-अभी लौटा हो
अपने युवा पुत्र को मुखाग्नि देकर.
न बचपन याद रह जाता है
न अतीत की बहँगी में लटके सपने
आँखें शून्य हो जाती हैं
ब्रह्मांड निर्वात,
बूँद-बूँद रिसता है दर्द का अम्ल
हृदय की धमनियों से,
सब कुछ तो है
और कुछ भी नहीं है,
फफक पड़ती है मेरु रज्जु
किस पर झुकेगी बुढ़ापे में,
रिस जाती है फेफड़ों की नमी
किन हाथों में थमाएगा दवा का पर्चा,
सहसा ही निकाल फेंकता है
आँखों पर लगा चश्मा
कि बचा ही क्या दुनिया में देखने को;
अंत्येष्टि कर लौटा पिता
मरघट हो जाता है स्वयं में
हर आग चिता की तरह डराती है उसे,
चुकी हुई रोटी की भूख
चिपका देती है उसकी अंतड़ियाँ,
पल भर में लाश बने उस देह की आग ठंडी होने तक
मर चुका होता है पिता भी;
बची-खुची देह भी समा जाना चाहती है
किसी कूप में
जब जमाना करने लगता है
पाप और पुण्य का हिसाब-किताब.

सुनो

कब आओगे
ख्वाहिश की तरह
एक मजबूत चट्टान बनकर
जिस पर तैर रहे
शब्दों के तिलचट्टों का
रत्ती भर भी असर न हो

कब आओगे
आंसू की तरह
इतने तरल होकर
कि हम भी पिघल जाएं
और समा जाएं तुममें
किसी को खबर न हो.

तुम रोशनी मशाल की

तुम तेज़ हो
तुम ओज हो
तुम रोशनी मशाल की
देखकर तुम्हें, ज़िन्दगी
जी उठी शमशान की
स्वप्न एक कच्ची उमर का
उतावला जो कर गया
भाल पर बांधे कफ़न
वो उतर फ़िर रण गया
रात चांदनी, सुबह
वस्त्र बदल अा गई
डूबकर ओज में
तेज में नहा गई.

श्री अमिताभ बच्चन जी को दादा साहब फाल्के पुरस्कार की बहुत बहुत बधाई 🙏

आज सुबह चाय पीते हुए

तुम्हारा होना
रोज़ रोज़ होना
कोई आदत नहीं
न ही लत है मेरी, क्योंकि
तुम तो सुबह हो,
मेज पर रखे चाय के दो कप
तुम्हारे साथ घूंट घूंट पीना
और बूंद बूंद स्वाद लेना
बालकनी पर छितरे बेल की
खिड़की से झांकती पत्तियां
मेरी आंखों से पढ़ी
तुम्हारी कविताओं का
स्पर्श चाहती थीं,
ये खिल सी उठती हैं
जब मेरे होंठों पर
तुम्हारे शब्दों के इन्द्रधनुष रचते हैं
गोया इनके भी कान हों
इतने संवेदी
जैसे मेरे कान तुम्हारी कविता को,
आज वो बेल मुरझा गई
पढ़ी तो थीं आज भी
तुम्हारी कविताएं
पर आंखों से कही नहीं
न ही होंठों से बाची गईं
...फ़िर कभी हो सकेगी क्या
वो चाय तुम्हारे लिए
और वो कविता हमारे लिए.
....
आज सुबह चाय पीते हुए
पी गई थी जाने कितनी उलझनें
बस एक चाय ही तो नहीं पी थी
आज सुबह...

अग्नि मेरा गीत है


मैं निशा की चांदनी
मांग अंधेरा सजा है
भोर के आने से पहले
नर्तनों का गीत हो
तांडव की बेला हो जैसे,
कांपते हांथों से
मेरी देह का श्रंगार कर दो
भाव पर धरकर विभूति
रोम रोमांचित मेरा हो.
तुम अलग
मैं पराकाष्ठा हूं विलग की
नेत्र पर दृष्टि समेटे
खोलने को हों ज्यों आतुर
भस्म दो
तन पर मलूं मैं
शीत मेरा ताप हो...

जा ही रहे तो लौटकर मत आना!

मरना ही चाहते हो न तुम
तो आराम से मरो और पूरा मरो
रत्ती रत्ती मत मरना
मरने के प्रयास में कहीं जी भी मत उठना
इस दुनिया की नारकीय पीड़ा भोगने को दोबारा,
नहीं तो मार दिए जाओगे प्रश्नों की बौछार से,
तब तक मरो जब तक कि
ये न बता सको
रक्खा ही क्या है इस दुनिया में
ताकि आने वाली नस्लों को
सुनाई जाए शौर्य गाथा तुम्हारे नाम की
इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो जाओ तुम
एक तुम ही तो हो संतान आदम और हव्वा की
बाक़ी सब सरीसृप वर्ग के प्राणी हैं
किसी की कोख़ से कहां जन्में
कायिकी प्रवर्धन का परिणाम जो ठहरे;
तुम जी नहीं सकते तभी मरोगे
आत्मा तो उसी पल मार दी थी
जब जीने की जिजीवषा मरी थी,
तुम असीमित में सीमित हो
स्थूल में नगण्य हो
संभावनाओं की चौखट पर बैठे
वो द्वारपाल हो जो किसी स्त्री के
मैल से उत्पन्न विवेक शून्य प्रतीत होते हो,
अपने न होने में मगर
कभी होना न तलाशना
तुम वो भाव मारकर जा रहे हो
जिसे आत्मीयता की पराकाष्ठा कहते हैं.

बिटिया

हर चिड़िया के माथे पर एक उदासी
और पंखों में एक उमंग होती है
हर बार जमीन से
जितना भी ऊपर जाती है
हर चिड़िया के माथे पर
अा जाती है शिकन, फ़िर भी
हर चिड़िया अपनी चोंच में
नेह भर तिनका लिए रहती है.
बहुत कुछ ऐसी ही होती है बेटी
सब कुछ करती है सभी के लिए
पर चाहकर भी उड़ नहीं सकती
कभी अपने लिए.
क्योंकि हर बिटिया
परों वाली चिड़िया नहीं होती.

जीवन के बाद भी जीवन है कहीं!

बहुत ही कम लोग परिचित होंगे
इस शब्द के मायने से
शब्द से तो बहुत से लोग होंगे
पढ़ रखा होगा अख़बार में, पाठ्य-पुस्तकों में
कभी सुना भी होगा दूरदर्शन पर
अभी हाल ही में खबरों का आकर्षण रहे थे
जब लाखों की संख्या में इनके बेघर, विस्थापित होने की बात अाई थी;
सही समझे, वही हैं ये
जिनका कोई ठौर नहीं होता
सामान्य से नाक नक्शे वाले
हमारे तुम्हारे जैसे, पर
हम जैसों से प्रकाश वर्ष की दूरी तक.
याद आया पुरानी फिल्मों में देखते थे
हू ला ला जैसा कुछ,
ऐसे भी नहीं होते ये.
शहर की आबादी से मीलों दूर बसे
अपने ही समूह में रहते हैं
पेड़ों के घनी छांव में
वही तो इनका जीवन है.
लोग वृक्षारोपण करते हैं, सही होगा
पर असल मायनों में जंगल तो इन सबका
बचाया और बसाया हुआ है.
शहर की पगडंडी को पारकर
जब लगेगा हम जंगलों में हैं
और वहां भी मीलों चलना होगा
चलते रहना क्योंकि कोई सुराग नहीं मिलता जीवन का
फ़िर दूर कहीं कुछ चूजे दिखेंगे
कुछ दूरी पर मिलेगी बकरियों की सुगबुगाहट
तब कहीं जाकर महसूस होगा
कि जीवन के निशान बाकी हैं अभी
दूर से दिख रहा पुआल और बांस की दीवारों पर रखा खपरैल
कहीं कहीं मिट्टी का लेपन किया हुआ
अहसास दिलाता है वहां किसी के रहने का
पास जाने पर मिलता है बस एक रोमांच
कितना भी पुकारते रहो बाहर से
कौन सुनने ही वाला है, भीतर तक जाकर भी
शून्य ही रहती है संवेदना क्योंकि
इंसान बसते हुए भी नहीं मिलते वहां सभ्यता के निशान
उन्हें सलीका नहीं आता आगंतुक को बिठाने का
टूटी खाट को गिराकर बैठने पर ताकते रह जाते हैं विस्मय से
बदन पर गमछी या फ़िर छापा साड़ी लपेटे युवा स्त्रियां
वृद्ध स्त्रियां बदन ढक लेती हैं एक गमछी भर से
बहुत सम्मान के भाव में 'गो' का संबोधन
शिक्षा का ककहरा भी नहीं पता,
नहीं देखी है इन्होंने सड़क और रेल,
कई कई दिनों तक सोना पड़ता है भूखों
उबले हुए भात में पानी और मिश्रण मिलाकर
'हड़िया' पीने को मजबूर;
जाने कौन सी धारा के शिकार हैं ये
कि इंसान होकर भी इंसानी अस्तित्व से वंचित
उठानी होगी एक आवाज़ इनके हक़ में
जोड़ना होगा इन्हें भी समाज की मुख्यधारा से
या फ़िर मनाते रहेंगे आदिवासी दिवस हर वर्ष
जब तक इनका अस्तित्व ही ख़त्म न हो जाए!

यह कविता मित्र अपर्णा अन्वी (स्वयंसेवी संस्था एकजुट की डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर) के साथ हुए संवाद पर आधारित है.

आउट लाइन

कई पन्ने ऐसे गुज़रे ज़िन्दगी में
कि हाशिए के इस पार भी लिख दिया
अब भरने को है ये नोटबुक
बहुत से सवाल
और उनका प्रश्नचिन्ह मिटाते जवाब
कुछ सबक
और कुछ हिसाब,
थोड़ा रोना लिखा
कुछ हंसना भी लिखा
बहुत बड़ा था दोस्ती का पन्ना
अब लगता है सब कुछ लिख गया
जैसे ख़त्म होने को है ज़िन्दगी
और बनानी है
उस खात्मे को निर्धारित करती आउट लाइन
जिसके उस पार से मौत लपक लेगी
वैसे तो बाउंड्री के बाहर कैच आउट नहीं होता
पर उपर वाला अंपायर
खींच ले जाता है सांसें
इस आउट लाइन को पार करते ही.

अवसान तक प्रेम!

मैं बचाए रखना चाहती हूं प्रेम
ख़त्म होने तक भी
यहां तक कि प्रेम के अवशेष
जब कुछ भी न बचे दुनिया में
तब तुम्हें वो पोषित करता रहे
चिरकाल तक
और फ़िर तुमसे ही प्रारम्भ हो
एक नए युग का
जिसकी रगों में बहता हो
मेरा पोषित किया हुआ प्रेम.

स्त्री धर्म है!

नभ के सीप में बंद उदात्त स्त्री
स्वयं में एक सत्ता है
हवा की आरी से दुःख को चीरती हुई
शिव नहीं है तो क्या हुआ
गरल तो पी जाती है
वो पूजती है और पूजी जाती है
गोमुख से निकली पावनी सी पवित्र
वही तो है समूचा अस्तित्व
फिर प्रश्नचिन्ह कैसा
क्यों तोड़ना उसे
अगर वो जोड़ती है.
अपात्र नहीं है
वो तो सुपात्र है
स्वीकारनी होगी उसकी उन्मुक्तता
ताकि सृष्टि का संतुलन बना रहे.

एक प्रश्न

मुक्त कर दो न हमें
प्रेम के ब्रह्मास्त्र से
बांट लेते हैं
अपने अपने हिस्से की जमीन
तुम अपनी सल्तनत में
प्रेम के बीज बोना
और मैं सींचता रहूंगा वो स्नेह
जो चलते हुए तुम
आलिंगनबद्ध कर दे गईं थीं.
बोलो, इस तरह बचाकर
रख सकोगी प्रेम का वर्तुल स्वरूप?

उन्मुक्तता

जब स्वच्छंदता
स्व की बेड़ियों में
जकड़ दी जाती है
तो उन्मुक्तता का मूल
स्वतः ही नष्ट हो जाता है
जैसे समंदर की लहरों पर बने
पांवों के ढीठ निशान.
न तुम रह जाता है
न मैं
न ज़्यादा या कम की तू-तू, मैं-मैं.
उन्मुक्त ही रहने देने थे न
कुछ भाव
कि खुली आंखों से देखते
सृष्टि के विरले रंग
और आंखें बंद करो तो शिव.

मैं जीवन हूं


मैं सब कहीं हूँ
प्रेम में, विरह में
दर्द में, साज में
सादगी में हूँ
परिहास में भी हूँ
मूक गर शब्दों से
तो आभास में हूँ
मैं मधुर हूँ
नीम की छड़ में
मैं कटु हूँ
शहद के शहर में,
अणु हूँ
रासायनिक समीकरण में
गति हूँ
चाल हूँ
समय हूँ
भौतिक के हर नियम में,
मुझसे ही आगे बढ़ा है
डार्विन का हर वाद
अपना सा लगे
प्रजातन्त्र और स्वराज
माल्थस का सिद्धांत हो
या रोटी का भूगोल
रामानुजम ने बताया
न समझो हर जीरो गोल
मैं शेषनाग पर टिकी,
मोक्ष के मुख पर
कयाधु के गर्भ से निकली,
जड़ हूँ
चेतन हूँ
अजरता
अमरता 
का पोषण हूँ
मैं जीवन हूँ।


तुम्हें ज़िंदगी कह तो दिया

उस रोज़ पूछा था किसी ने हमसे
तुम्हारा नाम क्या है
हमने ये कहकर उन्हें
मुस्कराने की वजह दे दी
कि एक दूसरे का नाम न लेना ही तो
हमारा प्रेम है...
कितने बावले हैं लोग
कि वो तुम्हें कहीं भी ढूंढ़ते हैं
मेंडलीफ की आवर्त सारणी में,
न्यूटन के नियम में,
पाइथागोरस की प्रमेय में,
डार्विन के सिद्धांत में,
अंग्रेजी के आर्टिकल में,
हिंदी के संवाद में,
विषुवत रेखा से कितने अक्षांश की
दूरी पर बसते हो,
जानना चाहते हैं अक्सर लोग
बातों ही बातों में.
पर हम तो तुम्हें बस
ज़िन्दगी के नाम से जानते हैं.
कैसे कहें लोगों से
हम तुम्हें याद तक नहीं करते
तुमसे निकलने वाली चमक को
आइरिश अवशोषित कर
उर तक प्रेषित कर देता है,
और जब तुम हृदय में हो
तो निकट दृष्टि दोष होना स्वाभाविक है.
तुम हर कदम इस तरह साथ हो
कि तुम्हारी छाया में
अपना अस्तित्व खोना
हमें अप्रतिम होने का भान कराता है,
अनुभव करते हैं हर रात जब तुम्हें
अपने बिस्तर की सिलवटों में
गर्व होता है...
जीवन में तुम्हारे होने पर,
कि कितने ही और जन्म मांग ले
ईश्वर से
जीवन की समानांतर पटरी पर चलने को
तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए
नाम के नहीं...जन्म-जन्मांतर के साथी.

एक शहीद की विधवा


बापू बोला चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
जिस दिन ब्याही गई थी इनसे 
बारातें तुमने बुलवाई
धूमधाम से विदा किया
बजवाई थी शहनाई
आज तिरंगे में सजकर
वो आएं हैं मन भर लेने दो
कहां मिलेंगे फिर मुझको
दरस ये अंतिम कर लेने दो
बस इतना कहती बेटी
होश में जब भी आती है
माह हुआ ये सुन सुन कर
पिता की छाती फट जाती है
कुछ बोल नहीं पाता बापू, अंगारों सा रोता है
दहक दहक कर दिन बीते, दर्द ही रात में सोता है
फिर कहता...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
दरवाज़े पर देखूं जरा
ये दस्तक उनकी लगती है
तन्हा कहां कभी आते वो
कहकहों की महफ़िल सजती है
उनको नहीं कभी भाती मैं
सूनी मांग दिखे जब भी
बिंदिया, गजरे से सज जाऊं
झुमके, महावर और कंगन भी
श्वेत वसन बापू दिखलाता और फ्रेम चढ़ा वो चन्दन हार
चला गया फ़िर आए न अब तू किसके लिए करे सिंगार
फ़िर कहता...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
तस्वीरों से बातें करती
उम्मीदों में रातें गढ़ती
उसकी पसंद के व्यंजन चखती
मद्धम आंच में चाय खौलाती
पल्लू बांधती नेह की चुटकी
याद में उनकी इतराती
मन ही मन बस पिया की बातें
और कहां कुछ उसको भाती
हार गया बापू भी अब, कैसे छुपाए ख़ुद की चीत्कार
हिल न सका इक पल को स्नेह भी, हार गई उसकी मनुहार
कैसे कहे...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
जीत रही ज़िद बेटी की रोक लिया है अब खुद को


*ये उस दर्द की अणु भर दास्तां है.
#martyr #shraddhanjali #why_pulwama 
    

एक पाती प्रेम की



प्रेम कविता लिखनी थी
सब कुछ तो है
कागज़, कलम, स्याही
बस प्रेम का रंग नहीं
क्या कहते हो बोलो
......छोड़े दें या....
ला रहे हो
वो गुलाबी रंग 
हमारे अंतस वाला...




सस्नेह
तुम्हारी ...
क्या लिख दें बोलो?