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११ मार्च

मुझे याद नहीं

कब जन्मी थी मैं

पा ने कहा मार्च की अट्ठारह को

माँ ने कहा इग्यारह रही होगी

नानी माँ ने बतलाया,

हम लोग बसौढ़ा की तैयारी में लगे थे तब

माने होली के आठों वाली सप्तमी को,


आसान नहीं था मेरा जन्म

माँ के गर्भ में बीतने को था

लगभग दस माह का समय

किसी भी सूरत में हो ही जानी थी जचगी

आम प्रसव से अधिक पीड़ा झेली थी माँ ने

कभी जताया नहीं

पर लाड़ करती है इतना ही

कोख से निकाल कर भी

लगाये रही छाती से

कई बार घुटन तक महसूस की मैंने


मुझे याद नहीं कुछ भी

यह भी नहीं कि पा के तबादलों संग

कितना अकेलापन झेला होगा माँ ने

यहीं से पा के पाँवों में

आ गया था राजनीति का चक्र

अपने विभाग के यूनियन लीडर्स से लेकर

इंदिरा जी तक से मिलना

उनका पसंदीदा शगल बन गया था

मैं थी कि बड़ी ही होती जा रही थी

कोई और रास्ता था ही कहाँ


फिर एक दिन,

यक़ीन मानो बहुत बड़ी हुई थी

पहली बार उस दिन,

पंडिज्जी ने कहा,

“जन्म राशि कुंभ के अनुसार ये ग्रह…”

माँ ने “इसकी जन्म राशि तो वृश्चिक है”

कहकर उनके मुँह पर जड़ना चाहा

'शट अप'

पर अब क्या

हो चुका था जो होना था

क्योंकि मुहर लगा दी थी नानी माँ ने

सत्य वर्सस संभावना के वार ज़ोन में

पछाड़ खाकर पस्त हो चुका था

सत्रह बरसों का सहेजा सच

जो एक झटके में सच नहीं रह गया था

मैं जन्म के अट्ठारहवें साल में

पूरे सात दिन और बड़ी हो गयी थी


मुझे और सीखना था

बहुत कुछ

मग़र मैं बनकर रह गयी पैसिव लर्नर

उन सात दिनों के क्षेपित सच के साथ


कैसा लगता है सुनने पर,

तुम वो तो हो ही नहीं जो अब तक होते आये हो

~अभिलाषा

वे ही मारे जायेंगे

 






देखना

एक दिन

तुम सब मारे जाओगे

हाँ तुम सब

मैं भी

लेकिन सबसे पहले

वे मारे जायेंगे

जिनका नाम शुरु होगा “र” से

मैं डरता हूँ

थर्राता हूँ

नींद नहीं आती है

तो रातों में उठ बैठता हूँ

मेरा किसी काम में

मन नहीं लगता

यहाँ वहाँ भागता रहता हूँ

कम हो गयी है मेरी प्रोडक्टिविटी

गुस्सा तो बहुत करने लग जाता हूँ

बैठ नहीं पाता एक जगह टिककर


और तुम्हें पता है

दो महीने पहले

उस नौकरी से निकाल दिया जाता हूँ

जहाँ मैंने दिये थे अपने 20 साल

और पिछले महीने

तीन और नौकरियों से

फारिग कर दिया जाता हूँ मैं

अब कोई काम नहीं

दिन भर खुद से ही उलझता हूँ

झल्लाता हूँ

सिर धुनता हूँ

अब मेरे पास बहुत वक्त है

कि बता सकूँ सभी को

घूम-घूम कर

चिल्ला-चिल्ला कर

कि मार दिए जायेंगे सब

कोई नहीं बचेगा

लेकिन सबसे पहले वे ही मारे जायेंगे

जिनका नाम “र” से शुरू होता है


जितना मानसिक व्यग्र दिख रहा हूँ मैं

मुझे देख कर हर कोई यही कहेगा

हाँ जरुर इसके साथ कुछ हुआ होगा

इस तरह मेरी बात

बातों ही बातों में

देर तक चलती रहेगी

दूर तक निकल जायेगी

और इसे मान लिया जायेगा सच


झूठ की चाशनी में लिपटा हुआ

आज का निर्लज्ज सच

कहीं खौफ़नाक मुस्तक़बिल न हो जाये


स्पांसर











जीवन की भूख कब रही मेरे भीतर

एक भूख से भरा जीवन रहा

इन कोमल उंगलियों पर पड़ी कठोर गाँठे

याद दिलाती रहीं ध्रुव तारे को छू लेने की ज़िद

न तो हम प्यार से बैठे कभी पास-पास

न ही पास बैठकर प्यार कर पाये

बस अपनी अपनी खिड़कियों से मापते रहे

रात का एकाकीपन


और


तब तक चलता रहेगा यह सिलसिला

जब तक चाँद करता रहेगा स्पांसर मेरे दर्द को


इतिश्री स्त्री दिवस

 











•लिखो विरुपा, विलक्षणी को

नायिका अपनी कविताओं की,

जुगनू की डाह पर गुदड़ी सीती

म्लेच्छ को लिखो

नवें माह के गर्भ पर नवीं जनने को तैयार

उस विरल पर, उसकी मंथरा सास पर लिखो


तुम आधे पूरे शब्दों में कुछ कच्चा पक्का भी लिखना

तुम जन्नत जैसी हूरों पर कुछ अच्छा सच्चा भी लिखना


लिखना तो

सरकंडे की आँच पर रोटी बेलती

उस स्त्री पर लिखना

जिसने चूल्हे की रोशनी में पढ़कर

अभी-अभी यूपीएससी की परीक्षा निकाली है


तुम ढ़लते यौवन की बाला पर गिरती हाला भी लिखना

तुम चम चम चमकाती आँखों की मधुशाला भी लिखना


पर उसके तुम बनो शूलपाणि

और फेंक दो कवच उस स्त्री की अस्मिता पर

जिसने किया है सौदा भूख के बदले


मत बनो चिरकुटों के प्रयोग का अस्त्र

मत स्वीकारो ‘वाह’ कुशीलियों की

ना बन पाना स्वर किसी स्त्री के ओज का

तो मत लिखना

कभी किसी स्त्री के लैक्मे आई लाइनर के बारे में,

कजरारे नैन से पहले

नशीली चितवन से पहले

स्त्री की भृकुटी, ललाट पर लिखो


तुम लिखना किसी अबोली का भय शब्दों में अपने लिखना

तुम लिखना किसी अपाहिज को और चिंतन भी उसका लिखना


तुम लिखना पंगु नहीं चढ़ते गिरि पर

तुम लिखना उनका नहीं कोई ईश्वर

वेद, ऋचा झूठी हैं आयतें

उनमें विद्रोह भयंकर है, उनकी उदासी का स्वर


तुम लिखना पशुवत मानव को उसके भीतर के दानव को

तुम लिखना उस ईश्वर को और आउटडेटेड अप्प दीपो भव को


भय, वेदना, विसंगति ही क्या

छूटना और प्राप्ति ही क्या


जब लिखना किसी नायिका को तब सर्वप्रथम भार्या लिखना

कुछ लिखने का मन हो तो फिर, प्रेम उसी से प्रायः लिखना


इल्युमिनाटी स्कूल का है ईश्वर



 मैंने पहले मौन चुना

तब ईश्वर छोड़ा

बहुत शौक़ रहा उसे

सफेद संगमरमर के

बुतों के पीछे छुपने का,

बुत बनने का

अब बनता रहे बुत

मैं नहीं बुलाती उसे

काहे का ईश्वर है वो

जब उसे यह तक नहीं पता

कब सड़कों पर निकलना है

कब बनना है तमाशबीन

मजाक बनाता है

अपने लिए रची आस्था का


यह कथा तो बहुत सुन ली

कि कृष्णा की पुकार पर भागा आया

मगर कहाँ जाये

कलयुग की द्रोपदी;

कहाँ होता है वो

जब बढ़ रहा होता है

गरीबों की थाली में छेद;

तब-तब भी नहीं आता

जब-जब उजड़ती है किसी माँ की गोद


कभी-कभी लगता है

इल्युमिनाटी स्कूल का है ईश्वर

स्वयं भी उपासक है लूसिफर का

और रहता है धनाढ्य में कलयुग बनकर


हँसी आती है

सो कॉल्ड संतों के उपदेशों पर

जब कहते हैं

‘माया के पीछे मत भागो’

ज़रा सोचो

कितनी माया बटोरी होगी

इस भीड़ से माया छुड़ाने के लिए

माया की गोद में बैठकर

कह देते हैं, माया बुरी है

जाने वो ईश्वर के पीछे हैं

या ईश्वर उनके पीछे


ईश्वर सत्ता का है

तभी तो प्रमाणपत्र दिलवा देता है

आस्तिकता-नास्तिकता का


श्श्शशश

यह पूँजीपतियों का ईश्वर है

यह बाहुबलियों का ईश्वर है


अगर कभी आ गया सामने

तो मत समझे कि पूछूँगी

‘कहाँ रहे इतने दिन’

लौटने वालों से बस इतना ही कहना है

‘अब आये ही क्यों’


करना चाहे कोई मेरा विरोध

तो गुरेज़ नहीं मुझे

क्या है कि मेरा

डी एन ए ही अलग है

हर साल नया साल




समय बदल रहा है

पल बदल रहा है

कल के लिए

आज और कल बदल रहा है

हर साल का यह शगल रहा है


पत्ता टहनी से बिछड़ा

धरती पात से

चकोर चाँद से बिछड़ा

चातक स्वात(इ) से

जीवन से बड़ा जंगल रहा है


कलछी भात से बिछड़ी

भात स्वाद से

मन रिश्तों से बिछड़ा

रिश्ता विवाद से

इन सबसे बड़ा दलदल रहा है


रौनक सभ्यता से बिछड़ी

प्रगति संयम से

एकता पीढ़ी से बिछड़ी

पीढ़ी पराक्रम से 

ना किमख़ाब ना बड़ा मलमल रहा है

 


एक बार फिर












एक बार

तुम्हें देखना है सामने

पास से

इतनी पास

कि हाथ बढ़ाकर छू सकूँ

चेहरे का स्पर्श कर जान सकूँ

तुम्हारा स्वाद

होठों पर उँगली रख रोक सकूँ

तुम्हें कुछ भी कहने से

और फिर लगा लूँ तुम्हें गले से

जो उधार है हम पर

जिसकी लौ तुमने ही तो लगायी थी

हर बात से खुद को झाड़ कर

कोई एक इस तरह

कैसे अलग कर सकता है ख़ुद को

जैसे किसी बच्चे ने

अपने कपड़ों से झाड़ दी हो मिट्टी

और मिटा दिया हो निशान गिरने का


चाय गिर जाती है

तो मैली होती है कमीज.

कहा था तुमने

सोचो जब प्रेम गिरा

तो क्या मैला नहीं हुआ मन


स्नेह की डोर

दोनों ओर से बँधती है

दोनों ओर से खिंचती है

छल गये उस बराबरी को तुम

कुव्वत नहीं थी

तो कवायद ही क्यों की


चाहती हूँ मैं मान जाऊँ

तुम्हारी बात

ले लूँ विराम

मगर उससे पहले

देखना है तुम्हें

सामने से

पढ़ना है विराम तुम्हारी आँखों का

कहानियों की किताब



"जो हुक्म। हम लेखक तो आप पाठकों के गुलाम होते हैं। हम वही दिखते हैं बस जो आप देखना चाहते हैं।"


"ये किताब आपने सीने से क्यों लगा रखी है ?" जिया का प्रश्न उभरा।


"तुम्हीं ने तो कहा था बीवी कभी प्रेमिका नहीं हो सकती तो मैं अपनी प्रेमिका को साथ लिए फिरता हूं। मुझसे बातें नहीं करती है तो क्या हुआ, चुप सी वो मेरे साथ रहती है। मुझे उलझनों में उलझाती है, बहुत उलझ जाती है जब ख़ुद में भी तो मेरे साथ एक सिरा थामकर बहुत दूर निकल जाती है।" साहिल का जवाब सुनते ही जिया ने


"वाह, वाह, वाह" कहा। इस पर साहिल ने जिया को कुछ याद दिलाते हुए कहा…


"तुमने झूमर कहानी को पढ़कर यही प्रतिक्रिया दी थी न!"


"जी, और आपने झुमकी के प्यार को जस्टिफाई क्यों नहीं किया था उस कहानी में? गलती क्या थी उसकी..


क्या साहिल का उत्तर नहीं जानना चाहेंगे आप? इसके आगे जानने के लिए

अनुस्वार: चुनिंदा कहानियाँ मेरी कलम से

गुनाहों का देवता: एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

 










"गुनाहों का देवता" में चंदर एक जटिल और विरोधाभासी चरित्र है, जिसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह बताता है कि उसका अनाथ होना उसके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालता है. इससे उसे सुरक्षा और प्यार की कमी महसूस होती है, और वह दूसरों पर निर्भरता से बचने की कोशिश करता है. डॉ. शुक्ला चंदर के लिए एक पिता तुल्य व्यक्ति हैं, जिनका मार्गदर्शन और स्नेह चंदर के जीवन को आकार देता है. चंदर सुधा से गहराई से प्रेम करता है, लेकिन अपने आदर्शों और डॉ. शुक्ला के प्रति कृतज्ञता के कारण अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर पाता. चंदर में आत्म-बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी है. वह सुधा की खुशी के लिए खुद को कुर्बान करने को तैयार रहता है. चंदर नैतिक द्वंद्व से जूझता रहता है. वह अपने आदर्शों और भावनाओं के बीच फंसा रहता है. इस क़दर उलझता है कि उससे गलतियाँ होती हैं. चंदर एक अंतर्मुखी व्यक्ति है, जो अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में संकोच करता है. चंदर एक आदर्शवादी व्यक्ति है, जो जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों को महत्व देता है. चंदर के मन में असुरक्षा की भावना भी है, जो उसके अनाथ होने और सुधा को खोने के डर से उपजी है.


चंदर का चरित्र मनोवैज्ञानिक रूप से समृद्ध है, जो पाठकों को उसकी आंतरिक संघर्षों और भावनाओं से जोड़ता है. उसका चरित्र प्रेम, त्याग, और नैतिक द्वंद्व जैसी मानवीय भावनाओं का एक जटिल चित्रण प्रस्तुत करता है. भारती जी ने इस किरदार के साथ बहुत इंसाफ किया. एक अच्छे व्यक्तित्व का धनी दिखाया. मगर यही पूरी कहानी भर चलता तो कहानी का नाम “गुनाहों का देवता” क्यों होता? क्या बेहतरीन नक्काशी उकेरी मनोविज्ञान की, एक आदर्शवादी युवक की अति नैतिकता ही उसके भीतर कुंठा का कारण बन गयी. वह गलतियों पर गलतियाँ करने लगा.


भारती जी ने समय के सापेक्ष एक अजर अमर साहित्य रचा है. उन्होंने चंदर को महानायक बनाकर नहीं प्रस्तुत किया वरन सामान्य दिखाने का प्रयास किया. हम जिस माहौल में रहते हैं वहाँ अति आदर्श का क्या हश्र होता है…जरा सा मानसिक असंतुलन होने पर भयंकर कुंठा के रुप में किस तरह निकलता है, यह सब दिखाता है यह किरदार. मध्याह्न के पहले से बाद तक कहानी बिल्कुल ही बदल जाती है. 


अभिलाषा

क़तरब्योंत

 •मैं प्रेम में हूँ

इस एक बात की कतरब्योत

वाज़िब-गैर वाज़िब तरीके से

बाज़ द‌फ़ा की गयी

बातों के दरमियाने पकड़ते

एक दिन तुम कह बैठे थे मुझसे

आज ही करें त्योहारों की शॉपिंग: लूट ऑफर

“देखो जो कुछ भी हुआ

नहीं होना चाहिए था”

मेरे पास दो जवाब थे

पहला “तो रोका क्यों नहीं तुमने?"

पर तुम तो मुनाफ़े में रहते

कि ग़लत भी बोल गये मुझे

और मैं तुम्हारी भी हुई,

दूसरा जवाब, “हाँ मैं प्रेम में हूँ”

इस जवाब में भी

मुनाफ़ा तुम्हारा ही था

छाती चौड़ी कर लेते तुम

जैसे कहा था कभी, “लो अब तुम भी”

इसी एक बात से

दाँव पर लगी इश्क़ की शख्सियत

कि आते-जाते हर अहसास को

तुमने समझा भी क्या इश्क़?

मैं गिड़गिड़ाती तुमसे

90 प्रतिशत महालूट! शानदार ऑफर

“माना कि मैं बहुतेरों में हूँ

पर अब आख्रिरी कर दो”

मैं तुम्हें इस तरह छूती

कि सारे बाँध भरभरा कर बह जाते

तुम्हें पहली दफ़ा वाला सुकून मिलता

और मुझे आखिरी मर्तबा वाला 'यकीन'

लेकिन ये सब होता कैसे

मैने तो सारे जायज़-नाजायज़ जवाब

महफूज़ रखे हैं खुद में ही

मैं जवाब दूँ भी तो कैसे

तुमने सवाल मेरी जानिब किये ही कहाँ

तुम लम्हा पकड़ते रहे

वक़्त पकड़ते रहे

बातें पकड़ते रहे

लोग पकड़ते रहे

और इन्हीं में ढूँढते रहे कुछ

जैसे कभी पसंद की होगी

माल में लटकती बुशर्टों में से

एक बुशर्ट अपने लिए

वह भी थोडे दिनों की

…है ना?

ऐसे बेग़ैरत नज़रों से मत देखो मुझे

मैं तो आज भी टाँग लेती हूँ

अपनी देह पर कुछ भी

तुम्हारी तरह नहीं देखती,

आउटफिट का रंग, रूप और माप,

बस देह की चौहद्दी को रख सके ढककर

वो मुझ पर भले न फबे

मैं भी तो तुम पर बिल्कुल नहीं फबती

फिर क्यों अख़्तियार है

मेरे मन की चौहद्दी पर बस तुम्हारा ही

क्यों इस इंतजार में हूँ

कि तुम हाथ रखो मेरी नब्ज पर

और मैं पिघलकर समा जाऊँ तुम्हारे सीने में

तुम मुझसे अपना मैं,

क्यों नहीं ले जाते

तुम्हें पता है औरत हूँ मैं आख़िर

इश्क़ भी करुँगी और सलीब पर भी लटकूँगी

इस एक बात को ग़लत साबित कर

अपना ईगो, अपनी जेलसी अपनी घृणा

सब कुछ लेकर जैसे हो बस वैसे ही

आओ ना एक बार लगा लो गले से

और खोल लो मन

हम दोनों ही बन जाते हैं बहती नदी



मिनिमल लाइफ गारंटी

 











हम जी रहे हैं

कार्पोरेट लव

कार्पोरेट फीलिंग्स

कार्पोरेट रिलेशनशिप

कार्पोरेट एथिक्स

कार्पोरेट लाॅ

कार्पोरेट थियरी

कार्पोरेट ब्ला ब्ला ब्ला...

हम केवल सोशल साइट्स में ही नहीं

लाइफ में भी हैक हो चुके हैं

जस्ट चिल

ये सोशल एनेस्थीसिया का दौर है

हम मिनिमल लाइफ गारंटी में जी रहे हैं

इस त्यौहार शापिंग का लुत्फ़ उठायें "बिग बिग डील ऑफर"

Picture Credit: Elin Cibian

मेरी पहली पुस्तक

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